पौराणिक, ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर जिस अक्षयवट को अतिप्राचीन बताया गया है, उसे वन विभाग की ओर से सिर्फ तीन सौ बरस प्राचीन बताए जाने पर संतों-महात्माओं से लेकर इतिहासकारों तक ने सवाल उठाए हैं। श्री रामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट के सदस्य स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती कहते हैं, ऐसे संवेदनशील मसलों पर कोई भी मनमाना बयान देने से बचना चाहिए। अक्षयवट की पौराणिकता सिर्फ तीन सौ बरस है, यह कहना पूरी तरह से असत्य है।
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के उपाध्यक्ष और निर्मल पंचायती अखाड़े के सचिव महंत देवेंदर सिंह शास्त्री बोले, यह तो हमारे इतिहास से जुड़ा मामला है, हमारे वेद पुराण झूठे नहीं हो सकते। यह अक्षयवट है, इसका कभी क्षय नहीं होगा।यह अनादि काल से है, इसके बीज का कभी नाश नहीं हुआ है, यह अनादि काल तक रहेगा भी। यमुना किनारे स्थित मनकामेश्वर मंदिर के प्रधान व्यवस्थापक श्रीधरानंद ब्रह्मचारी कहते हैं, अक्षयवट का पौराणिक प्रमाण सर्वविदित है, ऐसे में इसे सिर्फ तीन सौ बरस पुराना हास्यास्पद और असत्य है।
जूना अखाड़े के मठ मंदिर प्रमुख तक्षक पीठाधीश्वर रविशंकर जी महाराज बोले, वैदिक परंपरा के अनुसार देवाधिदेव महादेव शिव ब्रह्मा विष्णु आदि वट के पत्तों पर ही भगवान बालमुकुंद के दर्शन पाते हैं। कोई भी वैज्ञानिक गणना हमारी परंपरा को चुनौती नहीं दे सकती है। कहते हैं, औरंगजेब ने इसे नष्ट करने के प्रयास किए लेकिन यह अक्षय रहा। इसकी शाखाएं फैलती ही रही। ऐसे में धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देने का प्रयास अनुचित और अविवेकी है।
मत्स्य पुराण में है उल्लेख, नष्ट नहीं होगा अक्षयवट
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग की अध्यक्ष प्रो.अनामिका राय कहती हैं, अक्षयवट की प्राचीनता और उसके महत्व के संदर्भ में पुराणों से ही बात आरंभ करना उचित है। गुप्तकाल से अक्षयवट का विशेष उल्लेख मिलता है। गुप्तकालीन साहित्य मत्स्य एवं वायुपुराण में उल्लेख मिलता है कि संगम के तट पर अक्षयवट है। मत्स्य पुराण में कहा गया है कि बारह आदित्यों के प्रकृष्ट ताप के कारण प्रलय में समस्त जगत को नष्ट हो जाएगा लेकिन अक्षयवट कभी भी नष्ट नहीं होगा।
क्योंकि स्वयं महेश्वर शिव वटवृक्ष का रूप धारण करके यहां निवास करते हैं और प्रलय के समय अनेक ऋषि, नाग, सुपर्ण, खेचर आदि इसी वट वृक्ष में ही आश्रम लेते हैं। यह वृक्ष आराधना का विशेष केंद्र था। अन्य पुराणों में भी कहा गया है कि प्रलय के दिन स्वयं शिव वटवृक्ष का रूप धारण करके यहां निवास करते हैं,इसलिए यह वृह अनश्वर है। सातवीं शताब्दी में आए चीनी यात्रियों ने भी इसे देखा और इसका उल्लेख किया है। इसका घेरा बहुत विशाल था। अक्षयवट का उल्लेख अलबरूनी ने भी किया है। वह कहता है कि गंगा-यमुना के संगम पर एक विचित्र वटवृक्ष है। ऐसा विशाल वृक्ष पहली बार जीवन और प्रयाग में देखा। रशीदुद्दीन, अब्दुल कदीर ने भी गंगा के तट पर ऐसे वृक्ष का उल्लेख किया है। तुलसीकृत रामचरित मानस के अयोध्याकांड में भी अक्षयवट को संगम के सुशोभित छत्र के रूप में अक्षयवट का वर्णन किया गया है।