जिंदगी की धूप में छाया हैं पिता – डॉ कामिनी वर्मा
भदोही ।
धीर,गंभीर ,दृढ,शांत स्वरूप वाले पिता परिवार का वह स्तंभ होते है जो किसी भी झंझावात से टकराकर संतान को सुरक्षित रखते हैं।संतान का पथप्रदर्शक बनकर हर पल उसका मार्ग आलोकित करने वाले पिता पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिविम्ब होते हैं।जिनकी छत्रछाया जीवन की तपिश में सदैव शीतलता प्रदान करती है।
मुझे रखकर छांव में, खुद तपते रहे धूप में.
मैंने देखा एक फरिश्ता , अपने पिता के रूप में।
पिता शब्द शब्द दिमाग मे आते ही उस सुरक्षात्मक घेरे की सुखद अनुभूति होती है जिसकी परिधि में आकर संतान हर प्रकार की कठिनाईयों व झंझावातों से मुक्ति प्राप्त करती है । संतान का सुरक्षा कवच बनकर पिता जहाँ उसे हर मुसीबत से बचाते है , वहीं विपरीत परिस्थितियों का धैर्य के साथ सामना करना भी सिखाते ।
लौकिक जगत में संतान का अस्तित्व माता पिता से ही होता है। माता 9 महीने अपने उदर में धारण कर रक्त से सिंचित कर उसे धरती पर लाती है । पिता पालन पोषण व संरक्षण प्रदान करके संसार मे जीवन जीने के योग्य बनाता है । माता का भावनात्मक सम्बल और पिता का अनुशासन संतान के व्यक्तित्व को निखारता है । इसलिए भारतीय संस्कृति माता -पिता को देवता की संज्ञा से विभूषित किया गया है ।
मातृ देवो भव . पितृ देवो भव
संतान की प्रथम पाठशाला माँ है तो द्वितीय पिता । पिता उसको उंगली पकड़कर चलना सिखाने के साथ जीवन जीने के समस्त पाठ पढ़ाते हैं। भोजन , वस्त्र, घर व अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए वह दिन रात काम करते है , इसलिए कहा गया है –
न रात दिखाई देती है , न दिन दिखाई देते है
पिता को बस परिवार के हालात दिखाई देते है
संतान के सुख दुख में हर पल साथ रहने वाला रिश्ता पिता के साथ होता है , वह गुरु के समान निरन्तर पथप्रदर्शक का उत्तरदायित्व निर्वहन करते है ।
कृष्ण और नंद बाबा का अलौकिक प्रेम जग विख्यात है । श्रवण कुमार अपने अंधे माता पिता को ‘वहंगी’ में अपने कंधों पर रखकर तीर्थ यात्रा कराते है तो उनके माता पिता भी पुत्र की मृत्यु पर जीवित नही रहते और अपने प्राणों को त्याग देते है । राम लक्ष्मण के वन गमन पर दशरथ भी अधिक दिन न जी सके। कठोपनिषद में वर्णित कथा के अनुसार नचिकेता के पिता द्वारा उन्हें यमराज को दान किए जाने पर वह पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए यमराज के पास चले जाते है । और यमराज द्वारा प्रदत्त तीन वरदानों में से एक मे वह पिता की प्रसन्नता माँगते है । इस प्रकार पिता पुत्र के आदर्श सम्बन्ध समाज द्वारा सदैव अनुकरणीय रहे हैं। परंतु सांस्कृतिक प्रदूषण एवम भोगवादी वृत्तियों के कारण बदले हुए परिवेश में जीवन पद्धति भी परिवर्तित हो गयी है । संयुक्त परिवारों का स्थान एकल परिवार ले रहे हैं जो पति – पत्नी और बच्चों तक सीमित है । माता पिता की आवश्यकता संतान को तभी तक रहती है वे स्वस्थ व सेवा को तत्पर रहते है । असहाय वृद्ध पिता परिवार पर बोझ समझे जाते हैं और उनकी धन सम्पत्ति पर तो अधिकार समझा जाता है लेकिन उनके प्रति कर्तव्य पालन में विमुखता दिखाई जाती है । वर्तमान में अधिकतर परिवारों में वृद्ध पिता एकाकी जीवन जीने को विवश है । उनकी अनकही व्यथा अनेकत्र देखने को मिलती रहती है । जो पिता अपनी संतान की इच्छाओं को पूरा करने में दिन रात एक कर देते है वही संतान उनकी वृद्धावस्था में उन्हें वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाने में जरा भी संकोच नही करते ।
वर्तमान में वैश्विक स्तर पर दिवस विशेष को मनाने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है जैसे मित्र दिवस , महिला दिवस, मातृ दिवस आदि।
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